उत्तराखंडराजनीति

उत्तराखंड की राजनीति में क्षेत्रवाद का सवाल: ‘पाड़ीवाद’ बनाम ‘मैदानी सोच’, आरएसएस की गुरु दक्षिणा पर उठे सवाल

उत्तराखंड की राजनीति में क्षेत्रवाद का सवाल: ‘पाड़ीवाद’ बनाम ‘मैदानी सोच’, आरएसएस की गुरु दक्षिणा पर उठे सवाल

देहरादून:
उत्तराखंड की राजनीति में इन दिनों ‘पाड़ी बनाम मैदानी’ की बहस फिर से गरमा गई है। सोशल और राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज हो गई है कि राजनीतिक टिकट वितरण और पार्टी में प्रभावशाली पदों को लेकर कहीं ‘पाड़ीवाद’ (पहाड़ी क्षेत्र विशेष का पक्षपात) हावी तो नहीं होता जा रहा?

एक ओर जहां यह कहा जा रहा है कि राजनीति में टिकट वितरण भी अब क्षेत्रीय समीकरणों के आधार पर तय होने लगा है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) द्वारा सालाना गुरु दक्षिणा अभियान में बनियों (व्यवसायी वर्ग) से अपेक्षित आर्थिक योगदान पर सवाल उठ रहे हैं।

विचार यह भी सामने आ रहा है कि जब राजनीतिक भागीदारी और टिकट वितरण में पाड़ी (पहाड़ी समुदाय) प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं, तो फिर गुरु दक्षिणा जैसे आर्थिक योगदान में केवल मैदानी और व्यापारी वर्ग पर ही दबाव क्यों बनाया जाता है? क्या पाड़ी समुदाय आर्थिक योगदान में पीछे है या उनसे अपेक्षा ही नहीं की जाती?

‘पाड़ी फंड’ बनाम ‘बनिया सहयोग’

विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता सवाल उठा रहे हैं कि यदि राजनीतिक और सांगठनिक निर्णयों में पहाड़ी प्रभाव बढ़ता जा रहा है, तो फंडिंग जैसे दायित्वों में बराबरी क्यों नहीं दिखाई देती? क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि मैदानी व्यापारिक वर्ग को केवल साधन और सहयोग का माध्यम समझा जाता है, जबकि प्रभाव और नेतृत्व का लाभ सीमित क्षेत्र को मिल रहा है?

संतुलन की मांग

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि किसी भी संगठन या पार्टी को सामाजिक, भौगोलिक और आर्थिक संतुलन बनाकर ही निर्णय लेने चाहिए ताकि समान प्रतिनिधित्व और समान जिम्मेदारी सुनिश्चित हो सके। यदि टिकट वितरण में पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों में असमानता महसूस होती है, तो यह भीतर ही भीतर सामूहिक असंतोष को जन्म दे सकता है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button