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उत्तराखंड की राजनीति में नेतृत्व का संकट: क्या बनिया समाज अपने ही नेताओं को आगे नहीं बढ़ने दे रहा?

उत्तराखंड की राजनीति में नेतृत्व का संकट: क्या बनिया समाज अपने ही नेताओं को आगे नहीं बढ़ने दे रहा?

उत्तराखंड की राजनीति में नेतृत्व का संकट: क्या बनिया समाज अपने ही नेताओं को आगे नहीं बढ़ने दे रहा?

देहरादून:
उत्तराखंड की राजनीति में जहां अक्सर पाड़ी बनाम मैदानी और क्षेत्रीय समीकरणों पर चर्चा होती है, वहीं अब सवाल यह भी उठने लगे हैं कि क्या बनिया समाज स्वयं ही अपने सक्षम नेताओं को आगे बढ़ने से रोक रहा है?

राजनीतिक गलियारों में यह बहस गहराती जा रही है कि जब बात नेतृत्व के चयन या टिकट वितरण की आती है, तो बनिया समाज के प्रभावशाली चेहरे ही अपने समाज के उभरते नेताओं को पीछे धकेलने का काम कर रहे हैं।

इस मुद्दे पर कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पाड़ी समाज या पहाड़ी नेतृत्व पर दोषारोपण करने से पहले यह आत्मविश्लेषण जरूरी है कि मैदानी और व्यापारी वर्ग, खासकर बनिया समाज के वरिष्ठ नेता, अपने ही समाज के प्रतिभाशाली नेताओं को समर्थन क्यों नहीं देते?

भीतरघात या नेतृत्व की असुरक्षा?

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अक्सर वोट, समर्थन और संगठनात्मक शक्ति तो मैदानी क्षेत्रों और व्यापारी वर्ग से आती है, लेकिन जब बात प्रमुख पदों या टिकटों की होती है, तो भीतरघात या प्रतिस्पर्धा के चलते समाज के अपने ही लोग नेतृत्व की राह में रोड़ा बन जाते हैं।

एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता के अनुसार,

“अगर मैदानी नेतृत्व खुद ही अपने लोगों को ऊपर उठने नहीं देगा, तो बाहर से समर्थन की उम्मीद करना व्यर्थ है। पहले घर में एकजुटता लानी होगी।”

आगे का रास्ता: आत्मचिंतन और एकजुटता

सामाजिक और राजनीतिक संगठनों को इस दिशा में आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि क्या आज भी जाति, क्षेत्र और व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते योग्य नेतृत्व को रोका जा रहा है?
यदि समाज को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाना है तो एकजुटता, सहयोग और सामूहिक प्रयास जरूरी हैं — चाहे वह बनिया समाज हो या मैदानी क्षेत्र।

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